
आज पत्रकार जगत में यह बहस छिड़ी है कि पत्रकारिता और उसके मरजीवड़े सामाजिक सरोकारों के मिशनरी न हो उससे विमुख हो गए हैं। आज वे लोकतंत्र का पहरुआ चौथा खम्बा न रहकर उसका शोषण और विकृत कर रहे तंत्र का हिस्सा बन गए हैं। यह आश्चर्य ही है कि खोजी पत्रकारिता के महिमा मंडित कार्यो को अंजाम देने की लिए जिस ” छिदानवेशी ” दृष्टि जरुरत और महत्व सबसे ज्यादा है उसे पत्रकार ने आज खरीद -फरोख्त का माल बना लिया है।
पत्रकारिता का कभी वह दौर था जब अनेक सामाजिक विषयो के ज्ञाता ,भाषा के विद्वान और क्षेत्रीय सरोकारों के प्रति संवेदनशील व्यक्ति पत्रकार और संपादक पद को सुशोभित करता था। तब बेचलर ऑफ़ जर्नलिज्म तथा मास्टर ऑफ़ मॉसकॉम की डिग्रिया विद्द्यालयो में थोक के भाव उपलब्ध नहीं थी। किन्तु एक उद्देश्य था। साधना के लिए समपर्ण था। उसकर लिए उन साधको ने निर्धनता और प्रताड़ना के दंश को भी सहर्ष स्वीकार किया। वक्त बदल गया। अब पत्रकारिता एक प्रबंध कौशल है। मारक क्षमता के तीखेपन का प्रदर्शन है और उसके बलपर ” स्वर्ण ” झटक लेने का एक खेल है।
अब पत्रकार होने और समाचार पत्र चलाने के लिए भाषाका काम चलाऊ ज्ञान तथा छिद्रान्वेषी होना पर्याप्त है। छिद्र ढूढने और घपले की गंध सूघने की महारत ने उनके रातोरात वेळ-नोन और सुख सुविधा से संपन्न होने के रस्ते खोल दिए हैं। हर राजनितिक पार्टी ,उसके नेता और सरकारी तंत्र में घोटालो , अनियमितताओं ,लोकधन् के दुरुपयोग तथा पक्षपातपूर्ण वितरण के सुराख / छिद्र भरे पड़े हैं। उन्होंने ऐसा करने से बाज़ नहीं आना है। ऐसा करते रहना उन्होंने अपना अधिकार मान लिया है। उन्हें यह भी पता है कि उनकी सत्ता से बाहर छिद्रान्वेषी जमात के लोगो की भीड़ बढ़ती जारही है। इसके लिए उन्होंने ” मीडिया मैनेजमेंट ” की विधा को इज़ाद कर लिया है। जिस छिद्रान्वेषी पत्रकार की जीतनी मारक क्षमता उसकी उतनी ही ऊँची पहुंच और जेब भरी होने का भरोसा उसे मिल जाता है। छुटभैयों के मुंह तो थोड़ा बहुत विज्ञापन दे कर बंद कर दिए जाते है। बड़े और रसूकदार पत्रकारों का इस्तेमाल पार्टिया अपनी कुटिल योजनाओ , फिलर समाचारो के प्रकाशन और जनता को भ्रमित करने के सन्देश प्रसारित करने में उपयोग किया जाता है। इसके उदाहरण देश की राजधानी से जिला मुख्यालय तक दरखे जा सकते हैं। अब इन छिद्रन्वेशियो की सेवा में देश का कॉर्पोरेट सेक्टर भी आ मिला है। तिकड़मी और रसूक वाले पत्रकार को मोटे वेतन पर रखना और उनका ” दलाल ” की भूमिका में बेहतरीन उपयोग करना अब पत्रकारिता का नया चेहरा है।
अपने उत्तराखंड में भी राज सत्ता द्वारा ऐसे पत्रकारों के पिछले कई वर्षो से हो रहे समायोजन और पुरस्कृत किये जाने के चलन ने पत्रकार जगत में एक बहस को जन्म दे दिया है और अनेक पत्रकारों की पेशानी पर बल पड़ने लगे हैं कि आखिर वे भी क्यों लोकतंत्र का पहरुआ बनने की ज़िद पर अड़े रहें ? किसी एजेंट ,किसी का अर्जी नवीस ,किसी का गुप्तचर , किसी का नेगोशिएटर ,किसी का प्रचारक हो कर मिलाने वाले सुख क्यों न भोगे जाए ?
आज के भोगवादी ,बाज़ारवादी ,उपभोक्तावादी दौर में जब महत्व सिर्फ डॉलर का है तो सरलता से , चोरी के रास्ते , कमीशन के नाम से ,मुखबरी से , वह मिल सकता है तो क्यों छोड़ा जाए ? और अब तो सरकारी पद भी अपने ऐसे चहेते या इस्तेमालशुदा पत्रकारों को देने का रास्ता खुल चूका है। सरकारें अपने आधीन ऐसे अनेक संस्थाओं का सृजन कर पद तैयार कर उन्हें नवाज़ने लगी हैं।
नवयुग का सूरज उदित होने को है ,पत्रकारों के लिए आशाकी किरण छिटकने को है। वह आप पर भी मेहरबान हो सकती है बस आप किसी के हो जाइए ,अपने भीतर छिद्रान्वेषी दृष्टि और गहरी मारक क्षमता विकसित कर ली जिए आप पर पुरस्कारों की बौछार लगेगी।
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